बदन से रिसता खून
जिसके आगे हार जाता सीने में भरा जुनून,
आता जब भी छीन लेता, मेरा सारा सुकून |
रोके से ना रुके, लगा लो रुई या कपडा ऊन,
फिर तोड़ देता है मुझको, मेरे बदन से रिसता खून ||
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महीने के वो चार दिन, क्यों मैं सबसे अलग होती हूँ,
चलने में भी मौत आये, क्यों इतनी दुखी होती हूँ ?
अरे काश कोई समझाये , क्यों चहरे पे आई धुंध,
क्यों तोड़ देता है मुझको, मेरे बदन से रिसता खून ?
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क्यों मंदिर मैं नहीं जा सकती, क्यों रसोई नहीं बना सकती,
पीढ़ी दर पीढ़ी चलते ढोंग, क्यों मैं नहीं मिटा सकती ?
जिनके खंजर भी मैं सह गयी, उन्हें क्यों चुभे मेरे नाखून,
क्यों तोड़ देता है मुझको, मेरे बदन से रिसता खून ?
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चहरे पे हँसी चढ़ा के, दर्द हजार मैं सहती हूँ.
साफ- सुथरा होके भी, गन्दा महसुस मैं करती हूँ |
वृहत मेरे शरीर के, हालात हो जाते न्यून,
जब तोड़ देता है मुझको, मेरे बदन से रिसता खून ||
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आशा बस एक साथी की, मेरे दर्द को जो अपना समझे,
कभी चॉकलेट, कभी गर्म पानी और प्यार भरी इक गोद रखे |
मेरे सर पे हाथ रख जो कहे, you’ll be fine soon,
फिर नही तोड़ सकेगा मुझको, मेरे बदन से रिसता खून ||