तुम न सर्वश्रेस्ट, न सर्वोतम,
तुम राग द्वेष के पुरुषोत्तम |
तुम अंधकार के हो सूचक,
तुम दगाबाजी के हो पूरक ||
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क्या जमीर का भीतर कक्ष नहीं?
क्या एक भी अंग निष्पक्ष नहीं?
जो पीड़ पराई समझे, तुम में
एक भी ऐसा शख्श नहीं ||
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शीर्ष बुलन्दी छूके तुम्हारे,
पैर जमीन को चूक गए |
तुम्हारी बनायी आंधी से हमारे,
आंख से आंसू सूख गये ||
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जिस तख़्त पे शान से बैठे हो,
एक झूठी आन के ऐंठे हो |
किस भ्रम में आके तुम खुद को हमारी,
नज़रों से गिराये बैठे हो ||
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मैं कहता हूँ अरे सम्भलों जरा,
तुम दिल की भी कभी सुनलो जरा |
जो शाश्वत नहीं, है क्षणभंगुर,
ऐसी ताकत का न अहम् लो जरा.