राग द्वेष हैं सबके, सब अपने बनके,
मेरे पास भटके, सारे भ्रम से लगते,
मुझे आज भी वक्त मेरा, दिखता सख्त सा ही,
चाहा सबको, कोई मिलता क्यों नहीं ?
झूठे लोग, उनकी झूठी बातें,
सब कुछ सिखाते, सारे रिश्ते नाते,
मतलब की जात, मतलब की खाते हैं
पहले मीठी चाशनी, कड़वा बाद में,
यादें इनकी ,अब करता याद मैं,
क्यूँ फ़रियाद मैं करता आज भी,
नाम लेना इनका अब न लाजमी
क्यूँ समाज की आड़ लेते तुम,
सहते सहते मैं हो गया हूँ सुन्न,
मंसूबों की मुझे आ गयी थी बू,
कांपी मेरी रूह, आग बनके तुम,
कर गए तबाह, थम गया समाः,
ना मेरे पास ना कोई आस थी,
साथ मेरे बस मेरी साँसे थी,
हा निराश थी वो भी मुझसे तब,
बोली प्यार से बांधो अपना सब्र II
राग द्वेष में लिप्त सब संतृप्त है कृतघ्न भी.